Saturday, 15 December 2018

१८५७ का विद्रोह हमारा पहला स्वातंत्र्य  संग्राम नहीं वो तो विदेशियोंके साथ विदेशियोंकी लड़ाई थी।

१८५७ के विद्रोह को हिंदुस्तान का पहला स्वात्यंत्र संग्राम कहा जाता है पर इसे हिन्दुस्तान के स्वतंत्रता की  लड़ाई नहीं मान सकते क्यों की यह लड़ाई  विदेशी मुग़ल और विदेशी  वैदिक धर्मी ब्राह्मण अपने लिए लड़  रहे थे हिन्दुतान या नेटिव हिन्दू के लिए नहीं।

हम ये कभी भूल नहीं सकते की वैदिक धर्मी ब्राह्मण भी मुघलो की तरह ही विदेशी है जैसे विदेशी ब्रिटिश।  दिल्ली का बादशाह जाफर शाह  कोई नेटिव नहीं था नाही झांसी की  रानी लक्ष्मीबाई, पेशवा नाना या तात्या टोपे।  ये सब विदेशी थे जो यहाँ पर आक्रमण कर शाशक बन बैठे थे।

ग्वालियर के सिंधिया ने ठीक ही किया था जो वर्णवादी वैदिक ब्राह्मण धर्मी लक्ष्मीबाई को अपने यहाँ रुकने नहीं दिया नहीं इसलिए सभी हिन्दू सिंधिया के आभारी है।

हम यहाँ एक बात अवश्य कहना चाहते है  महाराणा रंजीत सिंह ने जरूर नेटिव हिन्दू और हिंदुस्तान के लिए ब्रिटिश कंपनी से नेटिव स्वतंत्रता के लिए सग्राम किया था।

कंपनी सरकार जाने के बाद ब्रिटिश के रानी का राज आया वो भी विदेशी ही है और वो करीब करीब ९० साल रहा।  १८५७ के बाद नेटिव हीरो टंट्या भिल्ल , बिरसा मुंडा ,उमाजी नाइक जैसे हिन्दू नेटिव ब्रिटिश सरकार से लड़ते रहे वे राजा नहीं थे वे प्रजा थे जो प्रजातंत्र और प्रजा का राज चाहते थे , इनके विद्रोह को हम आज़ादी की सही मायने में लड़ाई कह सकते है पर १९५७ की लड़ाई विदेशी लोगो की विदेशी लोगो से विदेशी राज के लिए की गयी लड़ाई या विद्रोह कह सकते है आज़ादी की लड़ाई नहीं।

आज़ादी की लड़ाई तो १९२३ से शुरू होती है जब डॉक्टर आंबेडकर और महात्मा गाँधी जो नेटिव गैर  ब्राह्मण थे कांग्रेस और  डिप्रेस्सेड क्लास के माध्यम से विदेशी ब्राह्मण नेतृत्व  हटा कर नेटिव लोगो के  राजनैतिक और सामाजिक , धार्मिक हक़ की लड़ई लड़ते रहे , गोलमेज  परिषद , १९३०-३१ के बाद ऐसे गति प्राप्त हुवी और १९४७ में यह देश स्वतंत्र हुवा पर ३ प्रतिशत विदेशी वैदिक धर्मी ब्राह्मण से आज भी संघर्ष जारी है , जिस दिन ये विदेशी ब्राह्मण भाग जाएंगे वोही सच्चा स्वतंत्र दिन होगा।

नेटिव रूल मूवमेंट इस दिन का इंतजार करेगा।

नेटिविस्ट डी डी राउत ,
अध्यक्ष
नेटिव रूल मूवमेंट       

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