कहरा : 6 : 2
सेमर सेइ सुवा ज्यौं जहँडे , ऊन परे पछताई हो !
शब्द अर्थ :
सेमर = वृक्ष ! सेइ = फल सेवन करना ! सुवा = पछी ! ज्यौं = ज्यो कोशिश करे ! ऊन = रोये , कपास ! परे = बादमे ! पछताई = पछताना !
प्रग्या बोध :
परमात्मा कबीर कहरा के इस पद मे उस पन्छी की हालत का वर्णन करते है जो सेमर वृक्ष के बडे बडे फल को रसदार समझकर उसे खाने के लिये चोंच मारता है और उसमे कोई रस नही मिलता है तो और जोर जोर से चोंच मरकार उस कठिण फल के आवरण को तोड देता है और फल से कोई रस गुदा खाने योग्य कुछ नही निकलता बस सुखी रूई ही रूई बहार आती है और रूई हवा मे उडने लगती है और पन्छी कुछ भी खाने को नही मिलने से अंतता निराश हो कर उड जाता है !
कबीर साहेब कहते है भाई तुम भी व्यर्थ अर्थहीन विदेशी यूरेशियन वैदिक ब्राह्मण धर्म अपने भले का कुछ चाहते हो पर जैसा सेमर का पेड रसहीन है वैसे ही ब्राह्मण धर्म धर्महीन है ! वहा ब्राह्मण के मतलब फायदे की बात है जैसे सेमार के फल मे पन्छी के फायदे की कोई बात नही ! सेमर ने तो अपने बीज हवा से रूई उडे और दुर दुर तक बीज पहूचे इस लिये उसे रूई से चगा दिये पन्छी को खाने के लिये नही ! आवरण पर मत जावो ! गहराई मे देखो विदेशी युरेशियन वैदिक ब्राह्मणधर्म तुम्हारे फायदे के लिये नही बना है !
धर्मविक्रमादित्य कबीरसत्व परमहंस
दौलतराम
जगतगुरू नरसिंह मुलभारती
No comments:
Post a Comment