#रमैनी : ८२
सुख के वृक्ष एक जगत्र उपाया * समुझी न परलि विषय कछु माया
छौ क्षत्री पत्री युग चारी * फल दुइ पाप पुण्य अधिकारी
स्वाद अनन्त कछु वर्णी न जाई * करि चरित्र सो ताहि समाई
जो नटवट साज साजिया * जो खेलै सो देखै बाजिया
मोहा बापुरा युक्ति न देखा * शिव शक्ति विरंचि नहिं पेखा
#साखी :
परदे परदे चलि गई, समुझी परी नहिं बानि /
जो जानै सो बांचिहैं, नहिं तो होत सकल की हानि // ८२ //
#शब्द_अर्थ :
जगत्र = जगत, दुनिया ! छौ क्षत्री = छ चक्रवर्ती पुरातन राजे शिवि पृथु आदि ! पत्री = पुस्तक , किताब बचाने वाले ! युगचारी = चार युग के जानकार ! अधिकारी = योग्य व्यक्ति ! चरित्र = आचरण ! नटवट = अभिनेता , नौटंकी ! साज = बाजा , श्रृंगार आदि ! बाजिया = करतब ! बापुरा = बेचारा ! युक्ति = विचार ! पेखा = देखा ! परदे परदे = मोह माया के भीतर ! बानि = आदत , स्वभाव !
#प्रज्ञा_बोध :
धर्मात्मा कबीर कहते हैं भाईयो विदेशी यूरेशियन वैदिक ब्राह्मणधर्म द्वारा लोगोंको यह बताया जाता है की संसार में सुख और दुख है , पाप और पुण्य है और वर्ण जाति के अनुसार कार्य का फल मिलता है ! असमान फल , पुण्य पाप सुख दुख वर्ण जाति वेवस्था अनुसार ही होता है यह वैदिक ब्राह्मणधर्म मान्यता है जिसको धर्मात्मा कबीर खारिज करते हुए कहते है मानव बहुतसारी मनगढ़न बातो को मानता है और उसमे उलझ गया है इससे बड़े बड़े दिग्गज और चक्रवर्ती राजे भी बचे नही !
विदेशी वैदिक यूरेशियन ब्राह्मनोने गलत सलत पोथी पुराण , वेद मनुस्मृति लिख कर वही उनको पढ़ सकते है, वही उनके अर्थ के जानकार और अर्थ बताने के अधिकारी है कह कर यहाँके मूलभारतीय हिन्दूधर्मी समाज को वर्ण जाति अनुसार असमान अधिकार , असमान पाप पुण्य के मनमाने वेवहार में फसा दिया और किताब , कानून धर्म और मान्यता परम्परा आदि का हवाला देते हुए मूलभारतीय लिगोंका शोषण करते रहे ! ये बहुरूपिए नौटंकीबाज ब्राह्मण पंडा पुजारी से सावधान करते हुवे कबीर साहेब कहते है भाईयो सुख दुख का कारण संसार में कार्यरत माया मोह तृष्णा है वर्ण व्यवस्था के अनुसार नही ना वर्ण जाति की धर्म में कोई जरूरत !
कबीर साहेब कहते मोह माया की परते आंखो पर पड़ी है जिस कारण मानव अधर्म धर्म की परख नही कर पा रहा है ! जो इन माया मोह से बाहर निकलेगा वह विकृत वैदिक ब्राह्मण अधर्म भी छोड़ देगा तब दुख से बचेगा !
#धर्मविक्रमादित्य_कबीरसत्व_परमहंस
#दौलतराम
#जगतगुरु_नरसिंह_मूलभारती
#मूलभारतीय_हिन्दूधर्म_विश्वपीठ
No comments:
Post a Comment