Sunday, 10 November 2024

Pavitra Bijak : Pragya Bodh : Shabd : 58 : Narhari Laagi Doun

#पवित्र_बीजक : #प्रज्ञा_बोध : #शब्द : ५८ : नरहरि लागि दौ बिकार बिनु इन्धन ! 

#शब्द : ५८ 

नरहरि लागि दौन बिकार बिनु इन्धन, मिले न बुझावनहारा : १
मैं जानों तोही से व्यापै, जरत सकल संसारा : २
पानी माहिं अगिन को अंकुर, जरत बुझावै पानी : ३
एक न जरे जरै नौ नारी, युक्ति न काहू जानी : ४
शहर जरे पहरू सुख सोवै, कहै कुशल घर मेरा : ५
पुरिया जरै वस्तु निज उबरै, बिकल राम रंग तेरा : ६
कुबजा पुरुष गले एक लागा, पूजि न मन की सरधा : ७
करत विचार जन्म गौ खिसे, ई तन रहत असाधा : ८
जानि बुझि जो कपट करतु है, तेहि अस मन्द न होई : ९
कहहिं कबीर तेही मूढ़ को, भला कौन बिधि होई : १० 

#शब्द_अर्थ : 

नरहरि = ज्ञान, स्वज्ञान, स्वरूप ! दों = संताप ! बुझावनहारा = सदगुरु ! अंकुर = अंश ! एक = वासना ! नौ = नौ नाडिया ! शहर = वृदय ! पहरू = साधक ! पुरिया = गठरी ! वस्तु निज = खुद की स्थिति ! विकल = अशांत ! राम = जीव , खुद ! रंग = भाव ! कुबजा = कुबड़ा ! सरधा = श्रद्धा ! खीसे = कमजोर ! असाधा = असंयमित ! 

#प्रज्ञा_बोध : 

धर्मात्मा कबीर कहते हैं भाईयो अगर मानव को कोई मनोरोग लग जाये , मन अशांत हो जाये तो उसे शांत करना , सही करना बहुत कठिन होता है ! ये ऐसी बीमारी है जो अंदर से ही आती है और उसे अंदर की शांति से ही दूर किया जा सकता है ! पानी में आग जाये तो उसे कौन बुझाए ? पानी की आग पानी से ही बुझती है वैसे ही मन की अशांति , दुविधा मन को ही दूर करना पड़ता है !  

मन की आग , द्वेष , नफरत बड़ी भयानक होती है वह न केवल दूसरे की हानि कर सकती है , चोरी , लूटमार , बलात्कार , खून करा सकती है वह खुद को भी बर्बाद कर देती है , शरीर आग की तरह जलता है बुद्धि का पानी सुखकर बंजर बन जाता है , कुछ अन्य और अच्छा सूझता ही नहीं ! यहा तक कि लोग आत्म हत्या भी कर लेते है ! 

इस मनोवृति , मनोरोग , पागलपन की दवा कबीर साहेब बताते हुवे कहते है भाइयों नफरत न पनपने दे , अहंकार को न पनपने दे , माया मोह इच्छा तृष्णा में ना फंसे ! मन की साधना करे , अच्छे लोगोंकी , साधु संतो की संगत करो , कपट विचार मन में न आने दे , धर्म विचार सुनो , अधर्म को छोड़ो , धर्म का पालन करो को मन की अंशाति , तृष्णा , मनोरोग से बचा जा सकता है ! 

मानव ने मानव समाज बनाया , आत्मा और परमात्मा का बोध हुआ ! सहजीवन की नींव है अपने से दूसरे को बड़ा मान कर सम्मान देना , निसर्ग नियम को न तोड़ना ! सृष्टि में सब से पहले नाग की उत्पत्ति हुई फिर पेड़ फिर फल फिर मानव जोड़ी स्त्री पुरुष और स्व और पराया का भान तब नीति यानी शील अर्थात धर्म की जरूरत महसूस हुवी और शील के बाद सदाचार भाईचारा समता शांति अहिंसा आदि का विस्तार होते होते हम वैज्ञानिक सोच तक पहुंचे !  

मनोविकार की उत्पत्ति पर आज अनेक दवा भी बनी है पर आज भी विज्ञान यही कहता है मन के विकार को मन में सदभाव ही शांति और सुख ला सकता है और तृष्णा मोह माया इच्छा अधार्मिक वृति और कार्य से बचकर हम मन की शान्ति और सुख पा सकते है !

#धर्मविक्रमादित्य_कबीरसत्व_परमहंस 
#दौलतराम 
#जगतगुरू_नरसिंह_मूलभारती 
#मूलभारतीय_हिन्दूधर्म_विश्वपीठ 
#कल्याण, #अखंडहिंदुस्थान, #शिवसृष्टि

No comments:

Post a Comment